संदेश

अगस्त, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ईश के दरबार में भी भेदभाव......

 ईश के दरबार में भी भेदभाव…….. हम सभी जानते हैं, प्रायः कहते हैं और कहीं न कहीं पढ़े या सुनें होते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहता है। अपनी आवश्यकताओं को परस्पर सहयोग से पूरा करता है। एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होता है। सभी एक जैसे हैं तो फिर उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार क्यों किया जाता है….? ऐसी विषमता अपनों के बीच प्रायः देखने को मिलती है। क्या आपने कभी इस तरफ गौर किया है..? या आपने कभी सोचने की कोशिश किया कि ऐसा क्यों हो रहा है..? कई बार तो सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने वाले भद्र पुरुषों को भी ऐसा व्यवहार करते हुए देखते हैं तो मन असह्य वेदना से पीड़ित हो उठता है। विचारों में तरह-तरह के सवाल उठने लगते हैं जो अंतर्मन को झकझोर कर रख देते हैं। सोच-विचार के बाद मन को समझाने में कामियाबी मिलती है कि ये सब मनुष्य की मनोवृत्ति की देन है अर्थात मनुष्यगत स्वभाव है। लेकिन जबतक ये समाज में अपनों के बीच करता रहा तबतक तो सहिष्णु बने रहे। पर ये तो सारी मर्यादाओं की पराकाष्ठा को पार करते हुए ईश्वर के दरबार तक पहुँच गया। जहाँ पर त्याग, सेवा, समर्पण, पवित्रता और शुचित...

ये स्वार्थ नहीं तो क्या है...?

 ये स्वार्थ नहीं तो क्या है….? वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो वर्ष 2020 सभी के लिए बहुत बुरा घटा। सोचो जरा कितने हर्षोल्लास के साथ इसका स्वागत किया गया था। रातभर जागकर जेब से मोटी रकम खर्च करके पार्टी में शामिल होना फिर दूसरे नए वर्ष का स्वागत सुनहरी किरणों के साथ करना। कितने मन से एकदूसरे के प्रति शुभकामनाएं दिए थे… पर ये शुभकामनाएं भी काम नहीं आई। मार्च महीनें में कोविड-19 का प्रवेश जो भारत में हुआ तो अगले छह महीनें तक सबकुछ ठप्प पड़ गया। लोंगों ने नई संस्कृति सीख लिया। मास्क पहनना और नियमित रूप से दिन में तीन-चार बार हाथ धोना। जिन्होंने कभी सेनिटाइजर का नाम नहीं सुना था वे भी जेब में सेनिटाइजर लेकर घूमने लगे। हर व्यक्ति दूसरे को शक की निगाह से देखने लगा। गलती से भी यदि किसी को खाँसी या छींक आ गई तो समझो उसकी शामत आ गई। भेदभाव को जिन्होंने भुला दिया था, कोरोना ने फिर से भेदभाव करना सीखा दिया। लोंगों को ये समझ में आ गया कि जीने के लिए दो गज का फासला जरूरी है। यहाँ तक कि घर के सदस्यों के बीच भी भेदभाव करते और सामाजिक दूरियाँ बनाते देखा गया। कोरोना महामारी से जनजीवन बहुत बुरी तरह प्रभाव...

समाज और देश के उत्थान में युवाओं की भूमिका

 समाज और देश के उत्थान में युवाओं की भूमिका समाज और देश के उत्थान में युवाओं की अहम भूमिका होती है। मैं युवाओं की बात को स्वामी विवेकानंद जी के उन विचारों के माध्यम से शुरू कर रहा हूँ जिनमें युवाओं को विशेष रूप से संबोधित किया गया है। स्वामीजी की मान्यता है कि भारतवर्ष का नवनिर्माण शारीरिक शक्ति से नहीं बल्कि आत्मिक शक्ति से होगा। इस संबंध में उनके शब्द कुछ इस प्रकार हैं। उनकी आशा, उनका विश्वास नई पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से कार्यकर्ताओं का संग्रह करना है। वे कार्यकर्ता ही सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति संबंधी समस्याओं का समाधान करेगें। भारत देश का पुनरुत्थान होगा पर शारीरिक शक्ति से नहीं बल्कि आत्मा की शक्ति से। वह उत्थान हिंसा और विनाश के मार्ग से नहीं बल्कि शांति और प्रेम के मार्ग पर चलकर ही संभव है। उन्होंने त्याग और सेवा को भारत का राष्ट्रीय आदर्श बतलाया है। जब युवा पीढ़ी त्याग और सेवा के भाव के साथ जुट जाएगी तो शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। एक बार मन से काम में लग जाने पर इतनी शक्ति आ जायेगी की संभालने से नहीं संभलेगा। दूसरों के लिए रत्ती भर सोचने से काम करने क...

रोजगार के लिए समाचार लेखन और संपादन में सुनहरा अवसर

  रोजगार के लिए समाचार लेखन और संपादन में सुनहरा अवसर आज वैश्वीकरण के युग में समाचार का बहुत महत्त्व है। सैटेलाइट का माध्यम से आज के युग में रेडिओ, टेलीविजन, मोबाईल, समाचारपत्र में विश्व में घटित घटनाओं के समाचार उपलब्ध होते हैं। बेशक समाचार के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन व क्रांति है। और आज समाचार के माध्यम से जनहित व कल्याण का कार्य भी हो रहा है। अतः आज समाचार का स्वरूप बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय का हो गया है। लाखों लोंगों को रोजगार सिर्फ समाचार क्षेत्र में उपलब्ध है। आज हम विश्व के कोने-कोने में घटने वाले कोई भी समाचार को पलभर में देख, पढ़ या सुन लेते हैं। उसके पीछे अनेक लोंगों का परिश्रम, एकाग्रता और प्रतिबद्धता शामिल रहता है। समाचार का इतिहास वैसे तो बहुत पुराना है। देवऋषि नारदमुनि का नाम सभी जानते हैं। वे मुख्य रूप से देवलोक में समाचार ही पहुँचाया करते थे। दूसरी तरफ मौखिक रूप से जो समाचार दिया करते थे, पहुँचाया करते थे वे खबरीलाल कहलाते थे। ऐसे लोग आज भी समाज में पाए जाते हैं। दरअसल मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिस समाज में और वातावरण में रहता है वह उस बारे में जानने को उत्सुक र...

सांत्वना देते हुए....

 सांत्वना देते हुए.... चिंटू बच्चा….. सुनकर बहुत दुःख हुआ…. दो मिनट के लिए तो आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया… कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं…. क्या कहूँ… क्या बोलूँ….. कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हिम्मत से काम लेना… घरवालों का ध्यान रखना। ईश्वर की लीला समझना सबके बस की बात नहीं…इतना ही समझ जायें तो फिर इंसान दरअसल इंसान न रह जाए। उसके मन में क्या चलता है, हम मनुष्य उसे नहीं जान पाते हैं। लेकिन वही सर्वशक्तिमान है उसके सामने इंसानों की एक भी नहीं चलती है। इंसान तो कठपुतली है उसका बागडोर तो ईश्वर के हाथ में है। वही नियंता है। वह जैसा नचाता है इंसान वैसा ही नाचता है। कुछ घटनाएं ऐसी हो जाती हैं जिससे ईश्वर के प्रति की आस्था भी डगमगाने लगती है। उसके अस्तित्व को लेकर भी मन में तरह - तरह के सवाल उठने लगते हैं पर सत्य तो यह है कि इंसान के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु भी निश्चित हो जाती है। पर असमय की मृत्यु दुखदायी होती है। यही दुःख तब असहय पीड़ा बन जाती है जब मृतक कोई अपना खास हो। उसके साथ हमारा संबंध कैसा था…? फिर उसका स्वभाव कैसा था..? खासकर के यदि मृतक मिलनसार, परिश्रमी, ईमानदार हँसमुख और सहयो...

पैसा बहुत कुछ तो है पर सबकुछ नहीं है....

 पैसा बहुत कुछ तो है पर सबकुछ नहीं है….. मनुष्य स्वभाव से ही बहुत लालची और महत्त्वाकांक्षी होता है। अर्थ, काम, क्रोध, लोभ और माया के बीच इस तरह फँसता है कि बचकर निकलना मुश्किल हो जाता है। यह उस दलदल के समान है जिसमें से जितना ही बाहर निकलने का प्रयास किया जाता इंसान उस दलदल में और फँसता जाता है। इस संसार में ऐसे बिरले लोग ही होते हैं कि जो इस मायाजाल में नहीं फँसते हैं। उनका तो जिक्र करना भी उचित नहीं है। वे तो ऐसे जितेंद्रिय पुरुष हैं जिन्होंने समझो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण पा लिया हो। यदि अप्सरा मेनिका भी आ जाए तो भी शायद इनका इरादा बिचलित न हो। ऐसे लोंगों का जीवन सदा अनुकरणीय रहता है। ये दूसरों के लिए सदा आदर्श बन जाते हैं। बेशक इनके जीवन में भी उतार-चढ़ाव व उथल-पथल होता है पर उस पर इनका नियंत्रण होता है। ये परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने व सामंजस्य स्थापित करने में कुशल होते हैं। ये भी पैसे को महत्त्व देते हैं पर एक सीमित मर्यादा में रहते हुए। हम बात करने जा रहे हैं उन विशेष प्रकार व प्रजाति के इंसानों की जो अपने जीवनकाल में सिर्फ पैसे को ही महत्त्व देते हैं। इनके लिए कोई र...

ऐसा भी दिन आएगा कभी सोचा न था...

 ऐसा भी दिन आएगा कभी सोचा न था…. सृष्टि के आदि से लेकर आजतक न कभी ऐसा हुआ था और शायद न कभी होगा….। जो लोग हमारे आसपास 80 वर्ष से अधिक आयु वाले जीवित बुजुर्ग हैं, आप दस मिनिट का समय निकालकर उनके पास बैठ जाइए और कोरोना की बात छेड़ दीजिए। आप देखेंगे कि आपका दस मिनिट का समय कैसे दो से तीन घंटे में बदल गया और पता भी नहीं चला। इस दरम्यान बुजुर्ग महाशय ने निश्चित ही आपको अपने दादा-परदादा के जमाने की बात से लेकर आजतक का पूरा ब्यौरा विस्तार पूर्वक नई अनुभूति के साथ बतला दिये होंगें। बेशक आपको मजा भी आएगा और ज्ञान भी प्राप्त होगा। आप उन तथ्यों के बारे में जान पाएंगे जिसे आपने कभी इतिहास में नहीं पढ़ा होगा। चाहे मुगलों का अत्याचार रहा हो या अंग्रजों की ज्यादतियाँ। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम की अनोखी और संघर्षमय कहानियाँ व घटनाएँ एकदम नये तरीके से जानने को मिलेगा। जिसमें ज्यादातर दृश्य व घटनाएँ आँखों देखा या फिर संस्मरण सी होंगी। वे बुजुर्ग आपको बतायेंगे कि वर्तमान समय में जो कोरोना महामारी वैश्विक बीमारी आई है वह कितना घातक है। वे भी कितना और किस तरह ...

जिंदगी जिओ पर संजीदगी से...

 जिंदगी जिओ पर संजीदगी से……. आजकल हम सब देखते हैं कि ज्यादातर लोगों में उत्साह और जोश की कमी दिखाई देती है। जिंदगी को लेकर काफी चिंतित, हताश, निराश और नकारात्मकता से भरे हुए होते हैं। ऐसे लोंगों में जीवन इच्छा की कमी सिर्फ जीवन में एक दो बार मिली असफलता के कारण आ जाती है। फिर ये हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं। जहाँ एक तरफ दूसरे लोग जो जीवन के प्रति कुछ अलग नजरिया रखते हैं वे आपाधापी में लगे होते हैं। उनका मानना होता है कि जिंदगी तो सिर्फ चलने का नाम है। इसलिए चलते रहो सुबह शाम। अकेलेपन का जीवन जीने वाले लोंगों से आग्रह है कि वे भी जीवन के प्रति अपनी नजरिया बदलें और ये मान लें कि जीवन एक संघर्ष है और उन्हें सतत संघर्ष करना है। ये संघर्ष आजीवन करना है तबतक करना है जबतक मंजिल नहीं मिल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी को जिओ तो संजीदगी के साथ….। 'जिंदगी जिओ तो जिंदादिली के साथ, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं...।' सच में जिंदादिली के साथ जिंदगी को जीने का मजा ही कुछ और है। यहाँ जिंदादिली का मतलब जोश, उमंग, उत्साह, मनोकामना, आशावादिता और हर रोज देखे गए नये सपनों के साथ है। ...

मस्त हवाओं का ये झोंका....

 मस्त हवाओं का ये झोंका.... मस्त हवाओं का ये झोंका, बेमौसम ही प्यार करे… प्रियतम पास नहीं हैं फिर भी मिलन को बेकरार करे जीवन में बहार नहीं फिर भी प्रणय गीत स्वर नाद करे सजना की कोई खबर नहीं फिर जीना क्यों दुस्वार करे बिन तेरे सजना जीना मुश्किल रग - रग में है ज्वार उठे  तेरे ही नाम से मेरी सुबह हुई है तेरे ही नाम से शाम ढले। मस्त हवाओं का ये झोंका, बेमौसम ही प्यार करे…… बिन सावन के जियरा हुलसै प्यार बिना मौसम के उमड़े बाई आँख जो फरकनी लागे पिय आगमन के आस जागे अंबर से अवनी तक जग में अपना ही तो प्यार पले प्यार के खातिर ही तो सूरज-चाँद भी दिन-रात चलें चाँदनी रात सुहाना मौसम प्रियतम के बिनु आग लगे। मस्त हवाओं का ये झोंका, बेमौसम ही प्यार करे….. मलय पवन को संगि ले घूमे मंद-मंद मुस्कान भरे कामदेव भी प्रमुदित होकर पवन देव के साथ चले प्रिया की छवि को देखिके कामुक हो धरि संग चले प्रेमरति अग्निहोत्री ने तो रग रग को अपने वश में धरे विरिहिणी बनि प्रियतम के बिनु अंतरंग में स्वयं जले। मस्त हवाओं का ये झोंका, बेमौसम ही प्यार करे…. कोरोना काल में प्रिय के बिनु जीना अब दुस्वार करे आखिर कब तक मन ...

स्वस्थ रहना है तो....

 स्वस्थ रहना है तो…. स्वस्थ रहना है तो नियम का पालन अर्थात अनुशासन को जीवन में अपनाना होगा। कहा जाता है कि स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी संपत्ति है। बिल्कुल सही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा तो खुशी व प्रसन्नता कहाँ से मिलेगी। कहने का तात्पर्य यह है कि खुशी व प्रसन्नता के लिए सुख सुविधाओं का व शारीरिक सुखों के अनुभूति को महत्त्व देने से है। यह सुख हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम स्वस्थ और निरोगी होंगें। स्वस्थ रहने के लिए तमाम उपाय बताए जाते हैं। जिसमें से कुछ एक कि हम यहाँ पर चर्चा अवश्य करेंगे जिससे कि पाठकगण भी इसका पूरा लाभ उठा सकें। परम्परागत जो मान्यता है वह इस प्रकार है कि लंबा जीवन जीना है, दीर्घायु बनना है तो प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठना आवश्यक है। ऐसा हमारे शास्त्र कहते हैं। जरूरी नहीं है कि परम्परा के रूप में चली आ रही चलन या शास्त्रों की सारी बातें मानी जायें। पर इस पर थोड़ा सा चिंतन या मंथन तो किया जा सकता है। बिना भेदभाव के सोच विचार करें तो खुद ही पता चल जाएगा कि क्या उचित है और हमारे लिए कितना लाभदायी और फायदेमंद है। लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठने की बात करते हैं और ...

अब नहीं रहा....No more...

 अब नहीं रहा.....NO more... ईश्वर की लीला ईश्वर ही जानें.. देता है तो जी भर देता है लेता है तो कमर तोड़ देता है परीक्षा भी लेता है तो  कितना कठिन, दुष्कर, प्राणघातक सबकुछ छीन लेता है- प्राण तक जिसने सबकुछ झेला कभी कुछ न बोला उफ़ तक न किया सँभलने का समय आया तो उसी के साथ इतना बड़ा अन्याय आखिर क्यों...? क्या इस क्यों..का जवाब है - तेरे पास नहीं, तू तो अदृश्य है, निराकार है जवाब कैसे देगा...? पर अंतर्यामी तो है... जानता है सबकुछ... हाँ सबकुछ तो बता खता कहाँ हुई..? क्या तपस्या..आराधना या विश्वास में कोई कमी थी..? तू तो समदर्शी दया का सागर कहलाता है तो फिर क्यों किया भेदभाव..? डूबते को तिनके का सहारा न देकर उसे और डूबा दिया....! सच ही कहा है लोंगों ने कि.... तू तो निर्जीव ..पत्थर है.... तेरे भीतर न कोई भाव है न कोई वेग-संवेदना तू क्या समझे लोंगों के दुःख और दर्द को..? तू तो निर्दयी है..हाँ-हाँ घोर निर्दयी... और नहीं तो क्या... इससे बड़ा दुर्दिन... और क्या हो सकता है...? ये जो किया...उसे देख कर  क्या तेरी अंतरात्मा नहीं काँपी ...? व्यर्थ में ही जग तुझे पूजती है उन्हें नहीं मालूम कि...