सांत्वना देते हुए....

 सांत्वना देते हुए....

चिंटू बच्चा…..

सुनकर बहुत दुःख हुआ….

दो मिनट के लिए तो आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया…

कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं….

क्या कहूँ… क्या बोलूँ….. कुछ समझ में नहीं आ रहा है।

हिम्मत से काम लेना… घरवालों का ध्यान रखना।

ईश्वर की लीला समझना सबके बस की बात नहीं…इतना ही समझ जायें तो फिर इंसान दरअसल इंसान न रह जाए। उसके मन में क्या चलता है, हम मनुष्य उसे नहीं जान पाते हैं। लेकिन वही सर्वशक्तिमान है उसके सामने इंसानों की एक भी नहीं चलती है। इंसान तो कठपुतली है उसका बागडोर तो ईश्वर के हाथ में है। वही नियंता है। वह जैसा नचाता है इंसान वैसा ही नाचता है।

कुछ घटनाएं ऐसी हो जाती हैं जिससे ईश्वर के प्रति की आस्था भी डगमगाने लगती है। उसके अस्तित्व को लेकर भी मन में तरह - तरह के सवाल उठने लगते हैं पर सत्य तो यह है कि इंसान के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु भी निश्चित हो जाती है। पर असमय की मृत्यु दुखदायी होती है। यही दुःख तब असहय पीड़ा बन जाती है जब मृतक कोई अपना खास हो। उसके साथ हमारा संबंध कैसा था…? फिर उसका स्वभाव कैसा था..? खासकर के यदि मृतक मिलनसार, परिश्रमी, ईमानदार हँसमुख और सहयोगी स्वभाव का हो तो करीबियों व परिजनों को बहुत अधिक तकलीफ़ होती है और लंबे समय तक उसका प्रभाव रहता है। ऐसे में यदि वह परिवार की धुरी हो अर्थात पूरे परिवार के निर्वहन की जिम्मेदारी उसके कंधों पर हो तो पूरा परिवार टूटकर बिखर जाता है। कहने का मतलब ये है कि दुःख का प्रभाव भी हमारे संबंध और स्वार्थ की गहराई व स्वरूप पर निर्भर होता है। दूसरी तरफ तो वे अदना इंसान हैं जो इंसानियत के कारण हर किसी के दुःख पर शोकाकुल होते हैं।

यहाँ इंसान बेबस है…

ऐसी घटनाओं के उपरांत सांत्वना देने वालों की कतार व बाढ़ सी लग जाती है। परिवार व परिजन तो शोकाकुल होते हैं ऐसे में उनके दुःख को कम करने व उसमें शामिल होने का एहसास दिलाने के लिए करीबियों, रिश्तेदारों व दूरदराज के लोंगों की भी अपने-अपने सुविधा के अनुसार उपस्थिति दर्ज कराई जाती है। लोग कारण जानना चाहते हैं। जिसने कभी देखा भी नहीं है वह भी जरूर बोलते हुए मिलेगा कि भाई बहुत अच्छे इंसान थे।

लोगबाग ऐसी ऐसी बातें कहेंगें और समझायेंगे जैसे कि उनके जैसा दूसरा कोई नहीं है। वे ही सबसे बड़े हितैषी व शुभचिंतक हैं, बेशक उसी तरह का हक भी जताते हुए मिल जायेंगे।

खैर होनी-अनहोनी सब विधि का विधान है। ईश्वर के अधीन है। ये बात और है कि ईश्वर स्वयं कलंकित भी नहीं होना चाहता है। इसीलिए कोई न कोई बहाना निकाल देता है जैसे आपदा, दुर्घटना या रोग-ब्याधि… आदि। आप से भी तो जितना हो सका आपने कोशिश किए पर ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था। ईश्वर को ज्यादा जरूरत रही होगी इसलिए अपने पास बुला लिए।

बच्चा हिम्मत से काम लो और घरवालों को भी सम्भालो। ऐसे में घरवालों को आपकी जरूरत सबसे अधिक है। उनकी निगाहें भी आप पर ही टिकी रहेंगी। कहा जाता है जबतक साँस तबतक आस, साँस टूटा तो आस भी छूटा और साथ भी छूटा।

अब तो बस पत्थर दिल करके सच्चाई को स्वीकार ही करना है कि अब दुनिया में नहीं रहा… No more.. टूटता हुआ तारा निकला… चमक दिखाकर ओझल हो गया। इतने दिन के लिए ही आया था। तकलीफ़ तो होती है पर अंतिम समय तक की जो तकलीफें झेलनी पड़ी एक प्रकार से देखें तो उसे मुक्ति मिल गई। ब्याधि के साथ जीवन घोर नारकीय हो जाती है। खैर इस दुःख का अनुमान मैं लगा सकता हूँ क्योंकि दो वर्ष पूर्व ही मैंनें अनुज को खोया है। पर उस दुःख का तो कोई पारावार नहीं है जब कोई जवान बेटा मर जाए और एक बाप को कंधा देना पड़े… सोचो उन कमजोर कंधों ने जवान बेटे के अर्थी का बोझ कैसे सहन किया होगा। कंधा देते समय तो निश्चित ही सिहर उठा होगा और एक अंदरूनी सिहरन के साथ कलेजा पत्थर से हो गया होगा। फिर सब कुछ करते हुए सुनते हुए भी कुछ नहीं करते हैं… गज़ब की ताकत आ जाती है पर अंत्येष्टि के दायित्व को पूरा करते ही शरीर टूट जाता है। वैसे तो रीति चली आरही है कि बेटा बाप को तारता है.. पर उसका क्या जब बेटे का जनाज़ा बाप के कंधों पर हो...पर ये आज की ऐसी सच्चाई है जिसे स्वीकार करने के लिए मन जल्दी तैयार नहीं होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये बोझ बाप को हमेशा के लिए तोड़ देती है। हाँ-हाँ बाप की कमर टूट जाती है। और नहीं तो क्या जिस बीज को पालपोस कर विशाल वृक्ष के रूप में खड़ा किया और जब सहारा बनने व फल देने की बारी आई और वह इस दायित्व के लिए पूरी तरह तैयार हुआ तो एक आँधी के झोंकें ने सबकुछ तहस-नहस कर डाला। इसे क्या कहेंगें…. दुर्भाग्य। राजा भोज का भी दुर्भाग्य ही था जब भूख मिटाने के लिए मछली भूनकर रखे थे और स्नान करके आये तो भुनी हुई मछली भी पानी में कूद गई….असंभव व कल्पनातीत लगता है… पर यही सत्य है। जब मनुष्य का दुर्भाग्य व दुर्दिन आता है तो अनअपेक्षित घटनाएँ और अनहोनी घटने लगता है। न चाहते हुए भी हमें इसे स्वीकार करना पड़ता है। इसके अलावा दूसरा चारा भी नहीं होता…. सत्य यही है कि जीवन नश्वर है। यह संसार अनिश्चितता से भरा हुआ है यदि कुछ निश्चित है तो दिन-रात, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख...जीवन तो क्षणभंगुर है।

ईश्वर से प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को बैकुंठ में स्थान दें और दिव्यपुंज को शांति प्रदान करें। 

बाकी परिजनों को हौसला व संबल प्रदान करें जिससे कि दुःख के इस घड़ी को सहन कर सकें। ये मानकर चलो कि जिस तरह खेती की फसल आगे-पीछे कटती हैं। कोई फसल तीन महीनें तो कोई छह महीनें में कटती है। वैसे ही जो भी यहाँ मृत्युलोक में आया है उसका जाना निश्चित है। इसलिए तटस्थ होकर सच्चाई को स्वीकार करके जीवन पथ पर आगे बढ़ने में ही जीवन की सार्थकता है। भूत की चिंता छोड़ो और शुद्ध वर्तमान को जिओ, सही मायने में वर्तमान ही जीवन है। भूत तो इतिहास है और भविष्य नकाब के पीछे सपने के समान है।

अतः सपनों की दुनिया से बाहर आकर यथार्थ की दुनिया में जीना होगा।

प्रतिकूल परिस्थितियों से आहत व शोकाकुल …'अशोक'।


➖ प्रा. अशोक सिंह...✒️



टिप्पणियाँ

  1. अशोक बहुत भावपूर्ण, आत्मीयता से ओतप्रोत, शाश्वत सत्य को याद दिलाते तुम्हारा ये सांत्वना से भरा हुआ पत्र भावुक तो कर ही गया किंतु विलाप न करते हुए जीवन को फिर एक नई स्फूर्ति से जीने का सम्बल भी दे गया है। 🙏💐 कुछ बाकी नही रहा और कहने को।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शामत मुझ पर ही आनी है....

श्मशान घाट हादसा...क्या कहेंगे आप...?

हिंदी के प्रति बढ़ती अरुचि