ईश के दरबार में भी भेदभाव......
ईश के दरबार में भी भेदभाव……..
हम सभी जानते हैं, प्रायः कहते हैं और कहीं न कहीं पढ़े या सुनें होते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहता है। अपनी आवश्यकताओं को परस्पर सहयोग से पूरा करता है। एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होता है। सभी एक जैसे हैं तो फिर उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार क्यों किया जाता है….? ऐसी विषमता अपनों के बीच प्रायः देखने को मिलती है। क्या आपने कभी इस तरफ गौर किया है..? या आपने कभी सोचने की कोशिश किया कि ऐसा क्यों हो रहा है..? कई बार तो सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने वाले भद्र पुरुषों को भी ऐसा व्यवहार करते हुए देखते हैं तो मन असह्य वेदना से पीड़ित हो उठता है। विचारों में तरह-तरह के सवाल उठने लगते हैं जो अंतर्मन को झकझोर कर रख देते हैं।
सोच-विचार के बाद मन को समझाने में कामियाबी मिलती है कि ये सब मनुष्य की मनोवृत्ति की देन है अर्थात मनुष्यगत स्वभाव है। लेकिन जबतक ये समाज में अपनों के बीच करता रहा तबतक तो सहिष्णु बने रहे। पर ये तो सारी मर्यादाओं की पराकाष्ठा को पार करते हुए ईश्वर के दरबार तक पहुँच गया। जहाँ पर त्याग, सेवा, समर्पण, पवित्रता और शुचिता की आवश्यकता होती है। पर ये पातकी, हाँ ऐसे लोंगों को पातकी कहना ही उचित होगा, अपने अपवित्र व मलिन विचारों से ईश के पावन दरबार को भी कलुषित और दूषित कर देते हैं। ये कर्म से और विचारों से भी पतित और पातकी होते हैं। इनकी बातों से ही स्वार्थता व असंगतता की बू आती है, जो कि ग्राह्य नहीं है।
इन परिस्थितियों में इनको रोक-टोक पाना आसान नहीं होता है। इनके साथ मधुमक्खियों का झुंड होता है, सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होते हैं। इनको छेड़ना मतलब सामाजिक स्तर पर अपनी छीछालेदर करवाना। दरअसल इनकी सोच एकदम संकीर्ण होती है। नाक के सीध में देखने की आदत होती है। स्वार्थ से परिपूर्ण आत्मकेंद्रित होते हैं। इनमें दूरगामी सोच व दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव होता है। ये लोग संगठन से जुड़े तो होते हैं पर एक संगठन का नेतृत्व करने वाले गुणों का इनमें सर्वथा अभाव देखने को मिलता है। जिसके कारण अच्छे व बुद्धिजीवी हमेशा इनसे दूरी बनाकर रखते हैं। सच तो यह है कि आध्यात्मिक व्यक्तियों और बुद्धिजीवियों को असंगत व विसंगति पूर्ण व्यवहार का आभास फौरन हो जाता है, वे आगामी अनचाही घटनाओं को भाँप लेते हैं। उन्हें आभास हो जाता है, इसलिए समय रहते सतर्क व सचेत हो जाते हैं। पर चाहकर भी टाल नहीं पाते क्योंकि झूठ अपनी चरमसीमा पर होता है, चारो तरफ उसका ही बोलबाला होता है।
चलिए आपको और विस्तार से बताते हैं और गहराई से समझने के लिए एक घटना से अवगत कराते हैं। एकबार दीपावली के दूसरे दिन दस-बारह लोंगों का समूह तुंगारेश्वर भोलेबाबा का दर्शन करने गए थे। उस समूह में 35 वर्ष से लेकर 60 वर्ष तक के लोग शामिल थे। जिसमें एक पुरोहित महराज भी थे। वहाँ दर्शन के पश्चात घूमते हुए कुंड के पास पहुँचे तो पानी देखकर लोंगों के मन में गोता लगाने की इच्छा जाग उठी। मुझे, गिरीश और खरभानू को छोड़कर बाकी देव, शैल, धरम, पिंटू, रणजीत और महराज ने जमकर गोता लगाए। काफी समय बीत चुका था, दोपहर के दो बजे थे, भूख चरमसीमा पर थी। क्षुधापूर्ति के लिए पेल्हार फाटा के पास स्थित काठियावाड़ी ढाबे पर चले गये। वहाँ पर सभी ने छाँछ के साथ काठियावाड़ी व्यंजनों का भरपूर आस्वादन किया। जिसके बिल का भुगतान महराज ने किया। हमनें ये सोचा महराज के पैसे का नहीं खाना चाहिए। वे अपरिग्रही स्वभाव वाले विचारे, उनको खिलाने के बदले हम उनका खायें, ये उचित नहीं है। अतः सहमति बनी की सभी लोग तीन सौ - तीन सौ जमा करेंगें फिर उन्हें लौटा दिया जाएगा। आज पाँच साल बीत गए पर अभी तक उनका खाया हुआ उन्हें नहीं लौटा पाए। सवाल उठता है हमारे आचरण पर, कथनी और करनी में जो अंतर है उस पर। हम इतने स्वार्थी व अवसरवादी हो गए कि एक ब्राह्मण का ही खाकर बैठ गए। सोचिए फिर ऐसे समूह से आप दया, धर्म और सहानुभूति की अपेक्षा रख सकते हैं। जी बिल्कुल नहीं, ऐसा समूह जहाँ भी होगा देर सवेर वह अपने कुपोषित व कुंठित मानसिकता का परिचय अवश्य देगा।
चलिए दूसरे प्रसंग की ओर आपको मोड़ता हूँ। मनुष्य की कुकृति व स्वार्थवृत्ति आपको अपने आसपास छोटे-छोटे प्रयोजनों में देखने को मिल जाएगा। एकबार गणेशोत्सव के दौरान पंडाल का जो दृश्य और असंगत आचरण देखने को मिला उससे मन खिन्न हो उठता है। प्रायः ऐसे अवसरों पर संकल्प कराया जाता है और संकल्पकर्ता तन-मन-धन से समर्पित होता है। उस पंडाल में संकल्पकर्ता खुद ही असंगत आचरण कर रहा था। संकल्प किया था कि तेल का अखण्ड ज्योति जलेगा और कर्पूर व घी के दीपक से आरती होगी। मनमानी घी का दीपक कौन बनाए, समय लगेगा सिर्फ कर्पूर से काम चला लिए। फिर दलीलें देना, हमें जैसा आता है वैसा ही करेंगे, कहने का मतलब क्रियान्वयन से नहीं है। सोच और नजरिया दूषित है, ये कहना कि मैं तो महँगेवाले कपूर से आरती कर रहा हूँ। इसमें घमंड की बू आती है। ईश्वर भाव के भूखे होते हैं, न कि सामग्रियों के भाव के। सवाल ये उठता है कि जो सामग्री उस अनुष्ठान हेतु आया है उसके प्रयोग से क्यों कतराना…. उसमें कंजूसी क्यों करना…. सामग्री न हो तो बात अलग है। पर होते हुए भी उसका सदुपयोग न करना एकदम अनुचित है। फिर उस सामग्री को बचाकर क्या करना है…? फिर देवा को आपने स्थापित किया तो उनको वस्त्र, नैवेद्य और समय-समय पर पूजा अर्चना की जिम्मेदारी आयोजक की होती है। ये सब कार्य धैर्य और संयम के साथ होता है। त्याग और समर्पण की भावना होनी चाहिए। उस पंडाल में मैंने देखा कि प्रसाद वितरण में भी भेदभाव किया गया। खुद के लिए व अपने परिजनों के लिए मोदक, पेड़ा या अन्य उत्तम मिष्ठान, अन्य लोंगों के लिए साधारण बूंदी या रामदाना या फिर केला। लगभग दो घंटे तक उस पंडाल की गतिविधियों पर मेरी नज़र अनायास बनी रही। शायद मैं पहले ही उठकर चला गया होता पर वहाँ का आचरण व असंगत व्यवहार ने मुझे और अधिक समय तक रुकने के लिए विवश कर दिया। हालांकि मैंने टोका भी ये उचित नहीं है। एक ही साधारण सा जवाब - 'मेहनत हम करते हैं तो उसे खाने का अधिकार भी हमारा ही है।' फौरन सोच और मानसिक स्तर समझ में आ गया।
ऐसे लोग बहुत ही मझे हुए होते हैं। इनके पास आपके हर सवाल का जवाब और हर बात का कुतर्क मौजूद होता है। अंततोगत्वा हार हमें ही मानना पड़ता है। कोई साधक या भक्तजन हमेशा अपनी तरफ से श्री के चरणों मे श्रेष्ठ ही अर्पण करता है। फिर उस अर्पण और चढ़ावे के साथ भी भेदभाव किया जाता है ये गलत है। 'प्रसाद' की व्याख्या प्रभु के साक्षात दर्शन से की जाती है। मैं सिर्फ एक पंडाल या किसी एक विशेष व्यक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ। मेरे कहने का तात्पर्य प्रत्येक धार्मिक केंद्रों, तीर्थस्थलों, मंदिरों और मस्जिदों या दरगाहों पर हो रहे अनुचित आचरण और असंगतियों से है। कहावत है दीप तले अंधेरा होता है बिल्कुल सच है आज ठीक वैसे ही अच्छाइयों के केंद्र में ही बुराइयों का बोलबाला है।
एकतरफ हम ज्ञान, विज्ञान और तकनीकी में विकास कर रहे हैं। हर क्षेत्र में श्रेष्ठता को स्थापित कर रहे हैं। हरकार्य में पारदर्शिता लाने का प्रयास कर रहे हैं। तो वैसे ही हमारा आचरण और दृष्टिकोण भी होना चाहिए। तत्कालिक को त्याग कर सर्वकालिक और संकीर्णता को त्याग करके दूरगामिता को महत्त्व देना चाहिए। मनुष्य को सबसे पहले आत्मोत्कर्ष व आत्मोन्नति करने की आवश्यकता है। आत्मोन्नति होने के पश्चात उसका आचरण व दृष्टिकोण अवश्य बदलेगा और दूरगामी दृष्टिकोण विकसित होगा तब वह हरकदम पर आत्मोत्सर्ग के लिए तत्पर रहेगा। जिससे समाज और राष्ट्र का उत्थान संभव होगा।
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