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अक्तूबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महाप्रसाद के बदले महादान

  महाप्रसाद के बदले महादान आप सभी जानते हैं कि कोरोना विषाणु के कारण जनजीवन बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। व्यापार, कारोबार और रोजगार भी अछूता नहीं रहा। कोरोना के कारण पूरे विश्व में भय  व्याप्त है। ऐसे में पड़ने वाले त्योहारों का रंग भी फीका पड़ता गया। राष्ट्रीय त्यौहार स्वतंत्रता दिवस का आयोजन तो किया गया पर हर साल के जैसे उत्साह व उमंग नही था। ईद, बकरीद और रक्षाबंधन भी इसी तरह सादगी से बिना किसी समारोह के आया और चला गया अर्थात बीत गया। इतनी भयावह स्थिति बनी हुई थी कि 'गणेशोत्सव' की भी अनुमति नहीं मिली। सभी आयोजकों ने भी जनकल्याण हेतु इसका समर्थन किया। चारो तरफ अनहोनी का भय व्याप्त था। पर प्रशासन ने शर्तानुसार सादगी से गणेशोत्सव की अनुमति प्रदान की। वो भी सिर्फ डेढ़ से पाँच दिन के लिए। इसके लिए भी हमारे यहाँ से महेश दवे महाराज और रंजीत भाई तीन दिन तक महानगरपालिका व पुलिस स्टेशन का चक्कर काटते रहे तब कहीं जाकर पाँच दिन की अनुमति मिली। दरअसल सार्वजनिक गणेशोत्सव पर पाबंदी लगा दी गई थी। जबकि व्यक्तिगत रूप से बप्पा को घर ला सकते थे। जब जल में रहना है तो मगरमच्छ से बैर नहीं कर सकत

जीवन को सरल, सहज और उदार बनाओ..

  जीवन को सरल, सहज और उदार बनाओ मनुष्य कहने के लिए तो प्राणियों में सबसे बुद्धिमान और समझदार कहलाता है। पर गहन अध्ययन व चिंतन करने पर पता चलता है कि उसके जैसा नासमझ व लापरवाह दूसरा कोई प्राणी नहीं है। विचारकों, चिंतकों, शिक्षाशास्त्रियों और मनीषियों ने बताया कि सीखने की कोई आयु और अवस्था नहीं होती है। मनुष्य आजीवन सीखता है और सीखने में ही जीवन की सार्थकता है। सच भी है सीखना तो आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।(Learning is a Life long process) प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष  रूप से मनुष्य जड़ व चेतन सभी से प्रभावित होता है और कुछ न कुछ सीखता है। उदाहरण के लिए चलते समय जब ठोकर लग जाती है तब उस पत्थर या राह के रोड़े से हमें सीख मिलती है। केले के छिलके पर पैर पड़ने पर चारो खाने चित होनें पर स्वानुभव की सीख अनोखी होती है।छोटे बच्चों की अनोखी आदत होती है, उन्हें जिस कार्य के लिए मना किया जाता है वे उसी ओर कटिबद्ध होते हैं। पर दीया या आग की चिनगारी से जलने पर उसे भी सीख मिल जाती है। प्रकृति की हर वस्तु हमें सीख देती है। हम बड़े बच्चों को सिखाते हैं तो दूसरी तरफ बच्चों से हम बहुत कुछ सीखकर अपने जीवन को उनकी

अनमोल वचन

अनमोल वचन श्रद्धा सम भक्ति नहीं, जो कोई जाने मोल हीरा तो दामों मिले, श्रद्धा-भक्ति अनमोल। दयावान सबसे बड़ा, जिय हिय होत उदार तीनहुँ लोक का सुख मिले, करे जो परोपकार। स्वार्थी सारा जग मिले, उपकारी मिले न कोय सज्जन से सज्जन मिले, अमन चैन सुख होय। सब कुछ होत है श्रम से, नित श्रम करो तुम धाय सीधी उँगली घी न निकसे, तो टेढ़ो होत उपाय। खूबसूरती मन मा होत है, बिनु यहि प्रेम न होय जाहिं खूबसूरती न बसे, जीवन नर्क सम होय। ईश को खोजन जो चला, मिला न ईश्वर ठौर ठोकर लागि जब गिरा, मिला ईश ताहिं ठौर। ➖ अशोक सिंह ☎️ 9867889171 #स्वरचित_हिंदीकविता #पागल_पंथी_का_जुनून #अक्स

कोरोना की काली भयावह रात

  कोरोना की काली भयावह रात माना कि आज है कोरोना की काली भयावह रात दरअसल मिली है अपने कट्टर पड़ोसी से सौगात यूँ ही कोई देता है अर्जित अपनी थाती व विरासत सच पूछो तो ये है करनी यमराज के साथ मुलाक़ात..। नींद भी आती नहीं, आते नहीं सपनें बेसब्री बढ़ती जाती है याद आते हैं अपनें समाचारपत्रों में पढ़कर भयावहता की खबरें दम फूलने लगा है और सांस उखड़ने लगें हैं..। मास्क पहन-पहनकर ऑक्सिजन घटने लगा ये क्या धुंकनी सी चलने लगी और मैं खाँसने लगा एम्बुलेंस वाले आए और मुझे उठाकर ले जाने लगे हाथ जोड़ा गिड़गिड़ाया पर सभी कन्नी काटने लगे..। सगे संबंधी और दोस्त यार कोई भी पास नहीं आया बस उसी क्षण छूट गया इस दुनिया से सारी मोहमाया अस्पताल में भर्ती हुआ हकीकत में बस थोड़ा सर्दी हुआ परिजन तो यूँ घबराए जैसे कभी लौट के ना आए...। ऐसा लगता जैसे सभी करते हों बस चल बसने का इंतज़ार दूसरी तरफ अस्पताल में चल रहा था कमाई का व्यापार सच मानों, कोरोना ने मनुष्य को उसकी औकात दिखा दिया दरअसल जीवन के असली रूप से मुलाकात करवा दिया..। इत्तेफ़ाक से दुबारा घर लौटकर आने का सौभाग्य जो मिला कॉलोनी वालों का दूर से ही छुआछूत

मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं...

  मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं... मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं.. दुनिया के सताए लोग यहाँ सीने से लगाए जाते हैं। मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं। संसार मिला है रहने को यहाँ दुःख ही दुःख है सहने को पर भर-भर के अमृत के प्याले यहाँ रोज पिलाये जाते हैं। मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं। पल-पल में आस निराश भई दिन-दिन घटती पल-पल बढ़ती दुनिया जिनको ठुकरा देती वे गोद बिठाए जाते हैं। मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं। माँ का जयकारा लगाने वाले माता की शरण में रहते हैं कृपा मिलती है मातारानी का वे भवन बुलाये जाते हैं। मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं। माँ दामन सबका भरती है माँ झोली सबका भरती है माँ गोदी सबका भरती है माँ तिजोरी सबका भरती है माँ बिगड़ी सबका सँवारती है माँ कृपा सब पर बरसाती है माँ भक्तों के मन में रहती हैं दुनिया के ठुकराए लोग यहाँ पलकों पर बिठाए जाते हैं। मातारानी के दरबार में दुःख दर्द मिटाए जाते हैं। ➖ अशोक सिंह ☎️ 9867889171 #पागल_पंथी_का_जुनून #स्वरचि

उठो बहना शमशीर उठा लो.....

 उठो बहना शमशीर उठा लो.... उठो बहना शमशीर उठा लो सोयी सरकार न जागेगी हर घर में है दुःशासन बैठा और कब तक तू भागेगी...? समय आ गया फिर बन जाओ तुम झाँसी की रानी शमशीर उठाकर लिख डालो एकदम नई कहानी मरते दम तक याद रहे सबको एकदम जुबानी....। उठो बहना शमशीर उठा लो बन जाओ तुम मरदानी कोई नज़र उठाकर देखे या करता हो छेड़खानी याद करा दो उसकी नानी उठो बहना अपने साहस से लिख डालो नई कहानी मरते दम तक याद रहे सबको एकदम जुबानी....। उठो बहना शमशीर उठा लो आज कान्हां ना आएंगे कानून की देवी अँधी देखो पट्टी बंधी है आँखों पे सच्चाई दिखती ही नहीं है अँधी गूँगी सरकार बनी है...... बहना बन जाओ तुम अभिमानी अपने जौहर से अब लिख डालो एक कहानी मरते दम तक याद रहे सबको एकदम जुबानी...। उठो बहना शमशीर उठा लो न्याय की कोई आस नहीं बहरी ये सरकार है देखो.... करती रही है मनमानी शोहदों की करतूतों को ये बतलाती है नादानी उठो बहना स्वाभिमान जगा लो रच डालो नई कहानी मरते दम तक याद रहे सबको एकदम जुबानी....। उठो बहना शमशीर उठा लो अब आस न पालो बीरन से जाति-पाति में उलझे हैं सभी उम्मीद नहीं रणधीरन स

चले आना प्रभुजी चले आना....

"चले आना प्रभुजी चले आना..." कभी परशुराम बन के कभी बलराम बन के अहंकार मिटाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना... कभी घनश्याम बन के कभी श्यामघन बन के धरती को भिगाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी राम बन के कभी श्याम बन के पाप मिटाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी किसान बन के कभी नौजवान बन के अमन चैन दिलाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी मीरा बन के कभी राधा बन के भक्ति भाव बढ़ाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी योगी बन के कभी मोदी बन के राम मंदिर बनाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी नेता बन के कभी अभिनेता बन के दुःख श्रमिकों का हरने आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी गाँधी बन के कभी बुध्द बन के शांति फैलाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी राँझा बन के  कभी मजनूं बन के प्रेम पाठ पढ़ाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी रूस बन के कभी अमेरिका बन के पड़ोसियों से बचाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी गंगा बन के कभी यमुना बन के तृप्ति दिलाने चले आना चले आना प्रभुजी चले आना.... कभी माँ दुर्गा बन के कभी माँ काली बन के बेटियो

बहुत याद आता है वो गुजरा जमाना...

  बहुत याद आता है..वो गुजरा जमाना... बहुत याद आता है, वो गुजरा जमाना वो बीता बचपन, हरकतें बचकाना आपस में लड़ना, फिर रूठना-मनाना चंदा मामा का आना, खाना खिलाना सुबह का कलेवा, वो बासी खाना जिसके बिना दिन, लागे सूना-सूना। दादा-दादी के पास, नित होता था सोना नीदिया रानी का आना, चुपके से सुलाना परियों की कहानी का, नित होता सुनाना तंग आकर दादी का, फिर हमको डराना बरम बाबा डीह बाबा, को था मनाना दूसरे दिन जाकर के, सिन्नी चढ़ाना। बड़े मन से स्कूल, को होता था जाना जहाँ गोविंद मास्टर, का होता पढ़ाना वही ककहरा और, पहाड़े का रटाना पटरी घोटारना फिर, उसपर लिखाना सुलेख लेखन का था, वो भी जमाना इसी से लिखावट का, होता था तराना। वो बचपन की शरारतें, और होती पिटाई रास्ते में होती खूब, गन्नों की चुसाई अक्सर सुनने को मिलता एक कहावत पढ़ोगे लिखोगे तो, बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे तो, बनोगे खराब गजब का था बचपन, हाँ बचपन लाजवाब। बहुत याद आता है, चौओं का होना मुर्गे की बाग और, गैया का रंभाना अलाव के पास बैठ, ठंडी भगाना पिल्लों का लड़ाना, बकरी का मिमियाना बड़ेरी पर बैठ कौवे का, कांव कांव करना संके

विशुद्ध किसान गुदड़ी के लाल

 विशुद्ध किसान गुदड़ी के लाल हम किसान हमें खेती प्यारा हम कुछ भी उगा सकते हैं इस जग में दूजा काम नहीं  जो मेरे मन को भा सकते हैं। हम उस किसान के बेटे हैं संभव है तुझको याद नहीं जय जवान जय किसान का नारा बिल्कुल तुझको है याद नहीं। ईमानदारी जिसके रग-रग में समाया बेमिसाल ऐसा इनसान कहाँ सादा जीवन और उच्च विचार हो मिलता ऐसा गुदड़ी का लाल कहाँ...? इस धरती पर हमने अब तक शास्त्री जैसा जननेता न देखा काम किसी का भले न किये हो पर भूखा न किसी को लौटाते देखा। जब उत्तर में दुश्मन  रण की तृषा लिए आया तब लालबहादुर ने फिर  अपना बिगुल बजाया जता दिया दुश्मन को कि  ऐसा फौलादी सीना है यहाँ….। जो नफरत की आग जलाते हो  हम बुझा उसे भी सकते हैं  गर अमन चैन न भाता हो तो हम विध्वंस प्रलय ला सकते हैं हर हर बम बम के नारों से घाटी को दहला सकते हैं….। हमसे लड़ने को रावण था चला  सोने की लंका को जला डाला हमनें राह देने से सागर जब अड़ा तब रामसेतु बना डाला। भूचाल हमारे पैरों में है तो तूफ़ान बंद है मुट्ठी में  हर हर बम बम के नादों से तांडव भी दिखला सकते हैं  दुश्मन भी डरकर थर्राया था ताशकंद समझौता करवाया था लड़कर नहीं जीत सका त

कान की व्यथा कान की जुबानी

  कान की व्यथा कान की जुबानी  इस दुनिया में कोई पूर्ण नहीं है… सभी अपूर्ण हैं। कोई सुखी नहीं है सभी दुखी हैं। जिसके पास सबकुछ है फिर भी वो उसका भोग आनन्द पूर्वक न करके जो नहीं है या जो अप्राप्य है उसके लिए दुखी है। सभी के मन में कोई न कोई व्यथा है जिसने आहत कर रखा है। औरों की बात तो छोड़ो एक दिन कान बेचारा अपनी व्यथा का रोना लेकर बैठ गया। कहने लगा सुनिये साहब ध्यान से मेरी आपबीती, अपने दिल की बात आपसे साझा कर रहा हूँ। मैं कान हूँ....., हाँ-हाँ सही सुना आपने 'मानव कान'। मेरे बिना इनसान की कोई छवि नहीं है। उसकी शोभा व सौंदर्य मेरे कारण ही तो है। दरअसल मैंने ही समाज में उसकी सार्थकता व श्रेष्ठता को साबित किया है। हम दो हैं…..दोनों एकदम जुड़वा भाई...हमारा रंगरूप, सौंदर्य व उपयोगिता एक जैसी ही है। लेकिन हमारी किस्मत ही ऐसी है कि आज तक हमने एक दूसरे को देखा तक नहीं, पता नहीं.. कौन से श्राप के कारण हमें विपरित दिशा में चिपका कर भेजा गया है। हम चाहकर भी एक दूसरे को नहीं देख पाते। दु:ख सिर्फ इतना ही नहीं है...हमें जिम्मेदारी सिर्फ सुनने की मिली है......गालियाँ हों या तालियाँ.., अच्छा हो य

बुद्ध की बात मानों और अपना दीपक स्वयं बनों...

  बुद्ध की बात मानों और अपना दीपक स्वयं बनों अपना दीपक स्वयं बनों…. कथन तो एकदम सरल है। पर सारगर्भित है। सोचिए जरा 'अपना दीपक स्वयं बनों ' कहने का तात्पर्य क्या है..? इस बात को अच्छी तरह से समझने के लिए  चिंतन व मनन की आवश्यकता है। दीपक से रोशनी मिलती है, दीपक से अँधेरे का नाश होता है, दीपक से हमारा जीवन पथ प्रकाशित होता है, ज्ञान रूपी दीपक से अज्ञानतारूपी अँधकार का नाश होता है। वैसे तो इस सांसारिक जीवन में हमारे लिए पथप्रदर्शक तो मिल जाते हैं पर पथ पर हमें ही अग्रसर होना पड़ता है। कई मोड़ और दुविधा व असमंजस के पड़ाव आते हैं जहाँ कोई मार्गदर्शक नहीं होता है वहाँ हम स्वयं निर्णय लेते हैं। वह जो निर्णय लेने की योग्यता है उसको विकसित करना स्वयं का दीपक बनने जैसा है। यह जानने के लिए हमें बुद्ध के पास जाना पड़ेगा ! अर्थात उनके कथन- 'अपने दीए आप बनो' की गहराई व आशय को समझना होगा। इतनी ही जरूरत है गुरु की। गुरु बैसाखी नहीं बनने वाला है। जो बैसाखी बन जाए, वह तो दुश्मन है, गुरु नहीं है। क्योंकि जो बैसाखी बन जाए, वह तो सदा के लिए लंगड़ा कर देगा। और अगर बैसाखी पर हम निर्भर रहने लगे, तो

महात्मा गाँधी जयंती पर आयोजित वेब संगोष्ठी

  महाराष्ट्र राज्य कनिष्ठ महाविद्यालय हिंदी अध्यापक संघ मुंबई विभाग द्वारा महात्मा गाँधीजी की जयंती के उपलक्ष्य में वेबसंगोष्ठी का आयोजन"       महाराष्ट्र राज्य कनिष्ठ महाविद्यालय हिंदी अध्यापक संघ मुंबई विभाग द्वारा 'महात्मा गाँधीजी जयंती व शास्त्री जयंती  के अवसर पर वेबसंगोष्ठी का आयोजन दिनांक 2 अक्टूबर, 2020 की शाम 5.30 बजे आभासी मंच गूगल मीट के माध्यम से सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। समारोह का शुभारंभ भारतीय संस्कृति व परंपरा का निर्वाह करते हुए गणपति वंदना व सरस्वती वंदना के साथ हुआ। मंच का कुशल संचालन व समारोह के संयोजन का कार्य रिज़वी महाविद्यालय के हिंदी प्रा.अशोक सिंह ने बहुत अच्छे से किया। अतिथियों का स्वागत सत्कार व परिचय पत्र पढ़ने की भूमिका को प्राध्यापिका माधवी मिश्रा ने बखूबी अंजाम दिया। साथ ही उन्होंने कुशल वक़्ता के रूप में वेबसंगोष्ठी में हिस्सा भी लिया और मंच का बखूबी उदबोधन किया। समारोह में चारचांद तब लग गया जब मुख्य अतिथि के रूप में मुंबई विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ. दत्तात्रय मुरुमकर जी पधारे और पूरे समारोह के दौरान वे आभासी मंच पर सक्रियता से जुड़े