ये स्वार्थ नहीं तो क्या है...?

 ये स्वार्थ नहीं तो क्या है….?

वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो वर्ष 2020 सभी के लिए बहुत बुरा घटा। सोचो जरा कितने हर्षोल्लास के साथ इसका स्वागत किया गया था। रातभर जागकर जेब से मोटी रकम खर्च करके पार्टी में शामिल होना फिर दूसरे नए वर्ष का स्वागत सुनहरी किरणों के साथ करना। कितने मन से एकदूसरे के प्रति शुभकामनाएं दिए थे… पर ये शुभकामनाएं भी काम नहीं आई। मार्च महीनें में कोविड-19 का प्रवेश जो भारत में हुआ तो अगले छह महीनें तक सबकुछ ठप्प पड़ गया। लोंगों ने नई संस्कृति सीख लिया। मास्क पहनना और नियमित रूप से दिन में तीन-चार बार हाथ धोना। जिन्होंने कभी सेनिटाइजर का नाम नहीं सुना था वे भी जेब में सेनिटाइजर लेकर घूमने लगे। हर व्यक्ति दूसरे को शक की निगाह से देखने लगा। गलती से भी यदि किसी को खाँसी या छींक आ गई तो समझो उसकी शामत आ गई। भेदभाव को जिन्होंने भुला दिया था, कोरोना ने फिर से भेदभाव करना सीखा दिया। लोंगों को ये समझ में आ गया कि जीने के लिए दो गज का फासला जरूरी है। यहाँ तक कि घर के सदस्यों के बीच भी भेदभाव करते और सामाजिक दूरियाँ बनाते देखा गया।

कोरोना महामारी से जनजीवन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ। बहुत से परिवार भूखमरी के कगार पर पहुँच गए। जहाँ एक तरफ विपदा के समय लोंगों में दया और सहानुभूति की भावना जाग उठती है और दूसरों की सहायता करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ मनुष्य के अंदर की स्वार्थवृत्ति भी चरमसीमा पर देखने को मिली। जबकि कोविड-19 के प्रकोप की मार से कोई नहीं बचा पर इंसानियत हर हाल में होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं हुआ। धर्म की दुहाई देने वाला अधर्म में संलिप्त हुआ। तर्क की जगह कुतर्क और नीति की जगह कूटनीति का आना स्वाभाविक है। ऐसे ही माहौल में गणेशोत्सव - 2020 का भी आगमन हुआ। कोरोना के कारण सभी त्योहार के रंग फीके पड़ गए। लेकिन गणेशोत्सव को लेकर दिशानिर्देश जारी किया गया। त्योहार को एकदम सादगी के साथ करने का प्रस्ताव व आह्वान किया गया। लोंगों से भरपूर प्रतिसाद भी मिला। मेरे इलाके के पुलिस विभाग ने अपील किया कि गणेशोत्सव मंडल वाले मुख्य मंत्री राहतकोष में स्वेच्छानुसार सहयोग राशि डोनेशन के रूप में देकर सहयोग करें। उनकी अपील भी उचित थी। बहुत से मंडल ने सहयोग भी किया।

हमारी बिल्डिंग में पिछले पाँच वर्ष से सार्वजनिक रूप से सभी कार्यक्रम एसडीएम समिति के अधीन सम्पन्न होते रहे हैं। वर्ष 2020 के दौरान गणेशोत्सव का भी आयोजन अत्यंत सादगीपूर्ण तरीके से किया गया। बेशक कोरोना के कारण निधि का संग्रह भी बहुत कम हुआ फिर भी सारे कार्य सम्पूर्ण हुए। समिति के पास कुछ निधि बचा हुआ था। हमनें सोचा कि मुख्यमंत्री राहतकोष में कम से कम ग्यारह हजार रुपए की सहायता कर दी जाए। जो कि अपने आप में नेक कार्य था। पर इस बात पर सहमति नहीं बन पाई। ये सभी जानते हैं कि शोहदों की कमी नहीं है। एक ढूंढ़ो हजार मिलेंगे। इनकी दलीलें भी अजीबोगरीब तरह की थी। मि. भुनिया का कहना था कि उससे हमें क्या फायदा होगा…? सरकार हमारे घर में राशन भराने नहीं आती है। फिर हम आगे त्योहार कैसे मनायेंगें..? जिसने प्रस्ताव रखा है वो अपने जेब से भरे, हमारा पैसा नहीं जाना चाहिए। ये महाशय उनमें से हैं कि जिस थाली में खाये उसमें छेद जरूर किए। चाहे नौकरी की बात हो या क्रेडिट कार्ड का घोटाला। इसी करतूत की वजह से नौकरी से निकाल दिए गए। मि. देवा का मत था कि ये तो नंबर एक का चुइतियाफा है… उससे हमें क्या फायदा होगा? कोरोना काल में सरकार ने मुझे एक पैसे की मदद नहीं की इसलिए नहीं देना चाहिए। ये महाशय कहने के लिए शिक्षित हैं, पीने के लिए दूध के बदले शराब रोज चाहिए पर परमार्थ के नाम पर पैसा नहीं निकलता है। कहलाने के लिए तो पैसेवाले हैं पर दिल एकदम छोटा है। मि. शलिया ने तो हदे ही पार कर दिया। ये साले हरामखोर हैं। हमारे पैसे से मजा मारते हैं… नहीं देना है। ये महाशय तो ऐसी रईसी झाड़ते हैं जैसे इनकी तरह दरियादिल वाला चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। एकदम तबियत से नंगे। मि. रानिया  ने तो सीधा-सीधा इनकार कर दिया। हमें आगे त्योहार मनाना है। फिर क्या ये राजनेता लोग एकबार MLA / MP बन जाते हैं फिर हमारे पैसे से ही मजे मारते हैं। उनको आजीवन पेंशन मिलता है। सब हमारे पैसे का ही दुरुपयोग करते हैं। ये महाशय भी एक ही थाली के चट्टे बट्टे निकले। स्वार्थ की राग में ऐसे एक दूसरे का समर्थन किए कि इनके जैसा दूसरा समझदार व्यक्ति इस दुनिया में हो ही नहीं सकता है। सिर्फ एक अकेला महराज बिचारे सहायता के लिए अड़े रहे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि वे अकेले अपनी जेब से जो भी बन पड़ेगा राहतकोष में जमा करेंगें। सोचिए जरा हमारे समाज की स्थिति कितनी बदतर होती जा रही है। समाज और देश को ऐसे लोंगों से भगवान ही बचाए।

इनमें से ज्यादातर मना करने वाले वे लोग ही हैं जो दूसरों के पैसे हड़पते हैं। येनकेन प्रकारेण कमाई करते हैं। यदि उसी पैसे का उन्हें दावत दिया जाता तो वे बहुत खुश होते, फिर हाँ में हाँ मिलाते। सबके सब नंबर एक के शराबी, मदिरापान के लिए रोज दो सौ-चार सौ खर्च करेंगें पर दान पुण्य के लिए सौ-पचास रुपए नहीं निकलेंगे। तब स्वार्थ आड़े आ जाता है। इसके बदले मुझे क्या मिलेगा….? सरकार से तो मुझे अभी तक कुछ भी नहीं मिला...आदि आदि। एक महाशय तो यहाँ तक कहने लगे कि पुलिस वालों को नहीं देना है, वे साले हमसे पैसा वसूल कर खा जाते हैं। पिछले हफ्ते ही मुझे चार सौ का फ़ाईन मारा था। दूसरा कुछ अलग ही राग अलापने लगा कि लॉकडाउन में उसी कुत्ते ने मेरी मोटरसाइकिल जमा कर लिया था। मैं भी मौजूद था पर ऐसे ज्ञानियों, विद्वानों और प्रखर वक्ताओं के सामने मेरी क्या बिसात थी। देने के पक्ष में सिर्फ दो लोग और न देने के पक्ष में बीस लोग। नतीजा आपको पता चल ही गया। यह स्थिति है हमारे देश की और यहाँ रहने वाले लोंगों के सोच की। खैर हम लोकतंत्र को महत्त्व देते हैं। मेजोरिटी की जीत होती है। उनकी भी जीत हुई। निर्णय उनके पक्ष में गया। फिर क्या उसके आधे घंटे बाद ही दो बोतल टूटे और जश्न मनाया लोंगों ने। वो भी इसलिए कि वे अपने मकसद में कामियाब हो गए।

नकारात्मकता में जोर होता है। आइए इसके लिए आपको एक कहानी सुनाता हूँ। एक बार मुसीबत से गाँव को बचने के लिए गाँव के मुखिया ने एक अनुष्ठान रखा। गाँव वालों से मुखिया ने अपील किया कि सुबह हौद में सभी लोग अपने-अपने घर से एक-एक गिलास दूध लाकर डालेंगे जिससे अनुष्ठान किया जाएगा। अनुष्ठान के समय जब हौद में से दूध निकालने लगे तो उसमें से सिर्फ पानी निकला। दरअसल गाँव के किसी भी व्यक्ति ने दूध नहीं डाला। सभी ने ये सोचकर पानी डाला कि बाकी के लोग तो दूध डालेंगे ही मैं एक गिलास पानी डाल देता हूँ। इससे क्या फर्क पड़ता है…? सभी ने ऐसा ही किया। अर्थात सहयोग की कमी और नकारात्मक सोच हमेशा विघटनकारी होता है। ऐसे में कोई भी अनुष्ठान संपन्न नहीं होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संपन्न होते हुए भी लक्ष्य व उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती है। यही तो स्वार्थ है। जब मनुष्य सिर्फ स्वकेंद्रित होकर सोचने लगता है। अपना ही भला, अपने ही सुख को सुख और अपने ही दुःख को दुःख समझने लगता है। तब उसे परमार्थ का ज्ञान देना आसान नहीं है।

किसी भी संगठन की शक्ति  उसके सदस्यों व कार्यकर्ताओं की एकता व सहयोग में होती है। शरीर के सभी अवयव अपने कार्य को अंजाम देते हैं और एक दूसरे को पूरा सहयोग देते हैं इसीलिए शरीर की शक्ति बरकरार रहती है। जिस दिन शरीर के अवयवों में असहयोग की भावना आ जाएगी उसी दिन से उसकी शक्ति क्षीण होने लगेगी। कोई भी कार्य या अनुष्ठान का पूर्ण होना, सदस्यों के आपसी सहयोग व एकता पर निर्भर होता है। यदि एक ने आवाज दिया कि अमुक कार्य को करना है और चार लोग साथ देने के लिए आगे आते हैं और पहल करने वाले की आवाज में आवाज मिलाते हैं तो वह कार्य आपसी सहयोग से संपन्न हो जाता है।

पर यदि वहाँ किसी सदस्य के मन में कुछ और विचार आता है कि मैं क्यों जाऊँ…? इससे मुझे क्या मिलेगा…? तो ये स्वार्थ नहीं तो क्या है...निश्चित ही ये उसका स्वार्थ है। और इसी स्वार्थ के कारण मुख्यमंत्री राहतकोष में दी जानेवाली सहयता राशि के बीच अड़ंगा डाला गया। यदि इसी तरह से समिति में असहयोग और स्वार्थ की जंग चलती रही तो निश्चित ही समिति का पतन होना तय है। बेशक दूरदर्शिता की कमी और स्वार्थपरता के कारण ही अच्छे से अच्छे शक्तिशाली साम्राज्य का पतन हो गया तो मामूली से समिति की क्या वजूद है।

बात यहाँ पर सिर्फ एक समिति की नहीं है, बात है आज की युवा पीढ़ी की। उनकी अपनी क्या सोच है..? स्वयं को लेकर, समाज को लेकर या फिर देश को लेकर। प्रायः पूछने पर बस एक ही उत्तर सुनने को मिलता है इस बारे में अभी तक मैंने कुछ सोचा ही नहीं है। यह जवाब किसी एक विशेष व्यक्ति की नहीं है बल्कि आज की युवा पीढ़ी की सबसे बड़ी समस्या है। थोड़ा बहुत यदि कहीं पर कोई कसर या कमी रह जाती है तो उसे पूरा कर देती है उनकी ईर्ष्या, स्वार्थ और संगठन की कमी। अतः आत्ममुग्धता और दलबंदी भी संगठन की शक्ति को बुरी तरह प्रभावित करती है।


➖ प्रा. अशोक सिंह….✒️

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