बदलते परिवेश में शिक्षकों का उत्तरदायित्व

 बदलते परिवेश में शिक्षकों का उत्तरदायित्व


हमारे धर्मशास्त्रों व ग्रंथों में माता, पिता, गुरू तीनों को बालक के जीवन निर्माण में महत्त्वपूर्ण माना है। माता-पिता उसका पालन-पोषण, संवर्द्धन करते हैं तो गुरू उसके बौद्धिक, आत्मिक, चारित्रिक गुणों का निर्माण व विकास करता है, उसे जीवन और संसार की शिक्षा देता है। उसकी चेतना को जागरूक बनाता है। इसीलिए हमारे यहाँ आचार्य, गुरु को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, 'गुरूदेवो भवः' अर्थात गुरू को देव के समान पूजनीय माना गया है। माता-पिता के बाद गुरू का ही श्रेष्ठ स्थान होता है। 
गोस्वामी तुलसीदास जी की पंक्तियाँ इसे चरितार्थ करती हैं और गुरू के स्थान को दर्शाती हैं ➖
"बंदउ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुभाष सरस अनुरागा।
प्रातकाल उठिके रघुनाथा, मातु पिता गुरु नावहिं माथा।"
गुरू मतलब आज का शिक्षक,  शिक्षक के शिक्षण, उसके जीवन व्यवहार, चरित्र से ही बालक जीवन जीने का ढंग सीखता है, शिक्षक की महती प्रतिष्ठा हमारे यहाँ इसीलिए हुई है।
अध्यापक और विद्यार्थी के बीच जो स्नेह भाव, आत्मीयता, सौहार्द्र, समीपता की आवश्यकता है, वह आज नहीं है और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी डिग्री, डिप्लोमा ले लेता है, लेकिन व्यावहारिक जीवन का शिक्षण, चरित्र, ज्ञान, उत्कृष्ट व्यक्तित्व का उसमें अभाव रहता है। इन सबके बिना विद्या अधूरी है। जो जीवन को प्रकाशित न करे, पुष्ट न बनाए, वह विद्या किस काम की? चरित्र निर्माण की, व्यावहारिकता की शिक्षा पुस्तकों से नहीं मिल सकती। वह तो व्यक्ति की समीपता से, उसके चरित्र, आचरण को देखने, समझने से प्राप्त होती है, जो आज की शिक्षा पद्धति में नहीं के बराबर है।
इस सम्बंध में संत कबीरदास जी की ये पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं ➖
"गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।"
 गुरू कुम्हार है शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुन्दर बनाने के लिए अन्दर हाथ डालकर बाहर से थाप मारते हैं ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अन्तर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराइयों को दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है।
 निस्संदेह हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति में इसका बहुत ध्यान रखा गया था। गुरू और शिष्य का सहजीवन आश्रमों में बीतता था। उस समय विद्यार्थी पाठ ही नहीं सीखता था, अपितु गुरू के जीवन से चरित्र, व्यवहार भी सीख लेता था। इसी सत्य पर प्रकाश डालते हुए एक बार गुरुदेव रविंद्रनाथ ने कहा था - "शिक्षा के संबंध में एक महान सत्य हमने सीखा था। हमने यह जाना था कि मनुष्य से ही मनुष्य सीख सकता है। जिस तरह जल से ही जलाशय भरता है, दीप से दीप जलता है, उसी प्रकार प्राण से प्राण सचेत होता है। चरित्र को देखकर ही चरित्र बनता है। गुरु से संपर्क-सान्निध्य प्राप्तकर उनके जीवन से प्रेरणा लेकर ही मनुष्य, मनुष्य बनता है। आज का शिक्षक प्राण नहीं दे सकता, चरित्र नहीं देता, वह पाठ दे सकता है। इसीलिए आज का छात्र किसी दफ्तर, अदालत का एक बाबू बन सकता है, लेकिन मनुष्य नहीं बन पाता।"
आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है-संबंधों की। यद्यपि इसका कारण आज की सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियाँ भी हैं, लेकिन जो शिक्षक हैं, अध्यापक हैं, व्यक्तिगत तौर पर इस जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। एक बार शिक्षक दिवस पर बोलते हुए एक मुख्य अतिथि ने कहा था-"आप तो विद्यार्थियों की परीक्षा साल में एक या दो बार लेते हैं, किंतु विद्यार्थी तो आपकी परीक्षा प्रतिदिन, प्रतिघंटे, प्रतिक्षण ही लेते रहते हैं। वे आपको कक्षा में आते ही देखते हैं और फिर कक्षा के बाहर दूसरों के साथ मिलते-जुलते भी देखते हैं। वे जैसा आपको देखते हैं, वैसा ही स्वयं भी सीखते हैं, करते हैं। इसलिए जैसे आप होंगे, वैसे ही आपके विद्यार्थी, भारत के ये नौनिहाल भी होंगे।"
अतिथि महोदय के उक्त सारगर्भित शब्दों से शिक्षकों की जिम्मेदारी जो व्यक्तिगत रूप से उनके ऊपर है, उससे इनकार करने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और बच्चों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, चारित्रिक त्रुटियों के लिए कुछ सीमा तक शिक्षकों को भी उत्तरदायी माना जाए तो ठीक ही होगा। इसका कारण यह है कि छात्र अपने शिक्षक के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित होता है। शिक्षक के बाह्य व्यक्तित्व  व आंतरिक गुणों का भी प्रभाव छात्रों पर पड़ता है।
यहाँ तक भी कोई बड़ी बात नहीं कि शिक्षक बच्चों को अच्छी बातें नहीं सिखाते, किंतु जब अपने गलत व्यवहार और चारित्रिक त्रुटियों से बच्चों के सामने गलत आचरण करते हैं तो यह एक अक्षम्य सामाजिक अपराध ही है। हम देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चों के समक्ष अध्यापक लोग बीड़ी-सिगरेट पीते, तंबाखू-पान खाते हैं। भद्दे हँसी-मजाक करते हैं। अपने दोस्तों के लिए बच्चों के द्वारा बीड़ी, पान, सिगरेट मंगवाते हैं। बड़े स्कूल, कॉलेजों में विद्यार्थियों के साथ हँसी-मजाक पूर्ण बराबरी का व्यवहार, कई अनर्गल विषयों पर वार्तालाप करना, चारित्रिक स्तर निम्न रखने, जैसी कई बातें हैं जो विद्यार्थियों के समक्ष गलत उदाहरण पेश करती हैं। यद्यपि आजकल के विद्यार्थी भी दूध के धुले नहीं हैं तथापि शिक्षकों का उत्तरदायित्व अधिक है। ऐसे में थोड़ा सा भी तल विचल होने पर शिक्षक के दामन पर काला धब्बा लग जाता है। जो अंदर ही अंदर सालता है और सामाजिक स्तर पर छीछालेदर करवा देता है।
बच्चा यदि गलत आचरण करता है, तो वह अभिभावकों की त्रुटि का परिणाम है। इसी तरह विद्यार्थी यदि अनुशासनहीन और उदंड बनते हैं तो यह शिक्षकों की भूल व लापरवाही का परिणाम ही माना जाएगा।
हमारे देश का शिक्षक बहुत ही सामान्य स्थिति में जीवन निर्वाह करता है। इसके अतिरिक्त जीवन की जटिलताएँ बढ़ जाने, छात्रों की बढ़ी हुई संख्या के कारण भी आज के शिक्षक के लिए छात्रों से व्यक्तिगत संपर्क रखना कठिन हो गया है, लेकिन एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक के नाते अपने समस्त अभाव, अभियोगों, व्यक्तिगत कठिनाइयों में हम अपने उत्तरदायित्वपूर्ण कर्तव्यों से विमुख नहीं हो सकते। परोपकार और लोक-कल्याण की भावना रखकर ही शिक्षकों को बच्चों के जीवन निर्माण की दिशा में अग्रसर होना पड़ेगा। यह सच है कि प्रारंभिक जीवन के लंबे शिक्षाकाल में विद्यार्थी और शिक्षक का संपर्क बड़े ही महत्त्व का है। यदि इस समय में बिना किसी लाभ की भावना से भी यदि
बच्चों के जीवन निर्माण की दिशा में शिक्षक वर्ग ध्यान दें तो यह एक बहुत बड़ा पुण्य कार्य होगा। कोई संदेह नहीं कि इन्हीं बच्चों में से महापुरुष, विद्वान, तपस्वी, लोकसेवी, जननायक, कुशल नेता निकलकर न आएं। जिस देश में सुयोग्य व्यक्तियों की बहुतायत होती है, वह देश गिर ही नहीं सकता, उसका पतन नहीं हो सकता, न उसे कोई हानि ही पहुँचा सकता है।
हमारे देश, समाज, सभ्यता, संस्कृति का भार बहुत कुछ शिक्षकों के कंधों पर ही रखा है। अपने इस उत्तरदायित्व को समझते हुए बच्चों के उत्कृष्ट व्यक्तित्व का निर्माण करने में अधिकाधिक प्रयास आवश्यक है। आज के शिक्षकों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी है। खासकर कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा का प्रचलन आ गया है। जिसके माध्यम से वर्चुअल मीटिंग होती है और छात्र वर्चुअल क्लास में पढ़ता है। ऐसे में छात्रों को उचित माहौल की प्राप्ति नहीं होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि उसे अनुशासित करना या उसको नियंत्रण में रख पाना मुश्किल होता है। अब इस प्रणाली में कुछ क्या बहुत हद तक छात्र का समुचित विकास उसके अपने परिवेश से प्रभावित  होता है। अर्थात छात्रों का बहुर्मुखी विकास आज के प्रद्योगिकी से भी प्रभावित हो रहा है। ऐसे में शिक्षक की जिम्मेदारी व उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। उसे भी नई पीढ़ी के छात्रों को पढ़ाने के लिए स्वयं को प्रद्योगिकी से जुड़ाव रखना पड़ता है। उसमें महारथ हासिल करना पड़ता है। समय के साथ उसे भी रूढ़ियों को त्यागकर नवाचार का स्वागत करना पड़ता है। पर यहाँ पर भी शिक्षक की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आज तक शिक्षकों ने बखूबी अपनी भूमिका का निर्वहन किया है और आगे भी राह में आनेवाली चुनौतियों को सहज रूप से स्वीकार करके, अपने आपको परिमार्जित व परिष्कृत करके कालबाह्य होने से बचने के लिए स्वयं को एंड्राइड या सुपर एंड्रॉइड से लैस करेगा। जिससे कि तकनीकी व प्रद्योगिकी का सही तरीके से प्रयोग करके छात्रों का उचित मार्गदर्शन कर सके।

➖प्रा. अशोक सिंह...✒️

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